Ghazipur अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य आज
अफ्रीका, अमेरिका में भी होती थी सूर्य पूजा
महर्षि भृगु के वंशज भार्गवों ने प्रारंभ की थी सूर्योपासना
सृष्टि का यह सामान्य नियम है कि दुनिया में उगते-चढ़ते सूर्य की पूजा होती है किन्तु उत्तर भारत के बड़े भू-भाग पर चार दिनों तक कठोर तप करते हुए डूबते सूर्य की पूजा करने की परम्परा है ।
डाला छठ पर्व के संबंध में अध्यात्मतत्ववेता साहित्यकार डाॅ. शिवकुमार सिंह कौशिकेय ने बताया कि सूर्य और षष्ठी तिथि के पूजन की परम्परा जो आज मात्र भोजपुरी , मैथिली क्षेत्र मे सिमट गयी है । यह सूर्य पूजा कभी अफ़्रीका , अमेरिका महाद्वीप तक फ़ैली थी । सूर्य पूजा की परम्परा आदित्य कुल के भार्गवो ने शुरु करायी । हिस्टोरियन हिस्ट्री आफ़ दी वर्ल्ड एवं मिश्र के पिरामिडो से मिले प्रमाणो के अनुसार महर्षि भृगु के वंशज भार्गवों ने जिन्हें इस महाद्वीप पर हिस्त्री , खूफ़ू , मनस नामों से जाना गया । इन लोगों ने यहां सूर्य पूजा की परम्परा चलायी । इस तथ्य की जानकारी मिश्र के अलमरना मे हुई खुदाई से मिले पुरातात्विक साक्ष्यों और अमेरिकी विद्वानों कर्नल अल्काट , ए.डी.मार , प्रो. ब्रुग्सवे के शोध ग्रन्थो से की जा सकती है ।
इसी प्रकार अमेरिका महाद्वीप पर 12अक्टूबर 1492 को जब क्रिस्टोफ़र कोलम्बस नाम के पुर्तगाली नाविक यहां पहुँचे थे तब उनको सूर्य उपासना के प्रमाण मिले, इस महाद्वीप पर 10लाख सूर्य पूजक इण्डियन _ रेड इण्डियन भारतीय मूल के भार्गवंशी मौजूद थे । जिनका कत्लेआम , इस जमीन पर कब्जा करने के लिए यूरोपवासियों ने बड़ी बेरहमी से किया । इस तथ्य को अमेरिकी विद्वानों चेसली बैटी की पुस्तक अमेरिका बिफ़ोर कोलम्बस , प्रो0हेम्बेरटो की पुस्तक - थाउजेण्ड इयर ओल्ड सिविलेजेशन इन अमेरिका , हेरिसन की पुस्तक 'इण्डिया इन द यूनाइटेड स्टेट ' और कम्पाजेट की पुस्तक ' दी हेरिटेज आफ़ अमेरिका' मे देखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त अमेरिका के ग्वालेटा यूक्जाक्टन और मैक्सिको मे हुई , पुरातात्विक खुदाईयों में भी इसके प्रमाण मिलते है ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जब पांडव जुएं में अपना सारा राजपाट हार गए, तब द्रौपदी ने छठ का व्रत रखा, फलस्वरूप पांडवों को अपना राजपाट मिल गया।
मार्कण्डेय पुराण में छठ पर्व का वर्णन किया गया है ।
श्री कौशिकेय ने कहा कि भगवान सूर्य एकमात्र प्रत्यक्ष देवता हैं , इनकी उर्जा-उष्मा से ही प्रकृति में जीवन चक्र चलता है , इनकी किरणों से ही धरती में प्राण का संचार होता है । फल, फूल, अनाज, अंड और शुक्र का निर्माण होता है. इसी से वर्षा होती हैं व ऋतुओं का चक्र चलता है,
सूर्य अराधन के बिना बढे न तनु में तेज ।
अंंशुमान की किरण बिनु तन धारी निस्तेज ॥
इस पर्व में सूर्य के साथ देवी षष्ठी की पूजा भी होती है ।
शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव के पुत्र कुमार कार्तिकेय का जन्म तारकासुर वध के लिये हुआ था । जब यह बात तारकासुर को पता चली तो वह कार्तिकेय की हत्या का प्रयास करने लगा , पार्वती ने कुमार कार्तिकेय को षष्ठी देवी छः देवियों को सौंप दिया, जिन्होंने उनका पालन किया ।
डाॅ. कौशिकेय ने बताया कि राजा प्रियव्रत नि:संतान होने से दु:खी थे। उन्होंने महर्षि कश्यप से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया. यज्ञ के प्रभाव से महारानी गर्भवती हुई परंतु मृत बालक को जन्म दिया। राजा प्रियव्रत इससे अत्यंत दु:खी हुए और आत्म हत्या करने हेतु तत्पर हुए ,उसी समय एक देवी वहाँ प्रकट हुईं, और कहा कि - मैं षष्टी देवी हूँ , मेरी आराधना से पुत्र की प्राप्ति होती है, मेरी पूजा करो ,तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी । राजा ने छठ पूजा किया , उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई , तभी से छठ व्रत का अनुष्ठान चला आ रहा है ।
डाॅ. कौशिकेय ने कहा कि मिथिला की श्रुति के अनुसार प्रभु श्रीराम ने राजतिलक के पश्चात महारानी सीता के साथ छठ व्रत किया था। जिससे उन्हें चक्रवर्ती राजा के नाते शासन की शक्ति मिली थी ।
जंगल में सीता जी ने छठ मईया की कृपा से ही अपने पुत्रों कुश -लव को जन्म दिया था ।
बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश एवं भारत के पड़ोसी देश नेपाल में हर्षोल्लास एवं नियम निष्ठा के साथ मनाया जाता है, षष्ठी माता एवं भगवान सूर्य को प्रसन्न करने से आरोग्य, संतान एवं राजसी वैभव की प्राप्ति होती है ।
स्त्री और पुरूष दोनों ही व्रत रखते हैं। व्रत चार दिनों का होता है, कार्तिक चतुर्थी को आत्म शुद्धि हेतु व्रत करने वाले केवल अरवा चावल खाते हैं ,लौकी, अगस्त के फूल आदि का शुद्ध आहार लेते हैं , पंचमी के दिन नहाय खाय होता है, स्नान करके संध्या काल में गुड़ और नये चावल से खीर बनाकर फल और मिष्ठान से छठी माता की पूजा की जाती है फिर व्रत करने वाले कुमारी कन्याओं को एवं ब्राह्मणों को भोजन करवाकर इसी खीर को प्रसाद को खाते हैं । षष्ठी के दिन घर में पवित्रता एवं शुद्धता के साथ उत्तम पकवान बनाये जाते हैं , संध्या को पकवानों को बांस के डलियां - दौरी में भरकर जलाशय के निकट यानी नदी, तालाब पर ले जाया जाता है। इन जलाशयों में ईख का घरौंदा वेदी बनाकर उसपर दीपक जलाया जाता है ।
व्रत करने वाले जल में खड़े होकर डालों को उठाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं, सूर्यास्त के पश्चात व्रती पूरी रात साधना करते हैं , कुछ घर भी वापस आ जाते हैं ,रात्रि जागरण होता है , सप्तमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में पुन: बाँस के डालों में पकवान, नारियल, केला, मिठाई लेकर नदी तट पर व्रती सपरिवार जाते हैं , जहाँ उगते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। अंकुरित चना हाथ में लेकर षष्ठी व्रत की कथा सुनी जाती है , कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है । व्रती सप्तमी को पारण करते हैं ।
लोकमान्यता के अनुसार षष्ठी माता और सूर्यदेव से जो मांगा जाता है वह मनोकामना पूरी होती है। वांछित कामना पूरी होने पर बहुत से लोग सूर्यदेव को दंडवत प्रणाम करते हैं । लोग अपने कुल देवी -देवता को प्रणाम कर नदी तट तक लेटकर जाते हैं ।